Sunday, June 2, 2013

सृजन पथ अंक तृतीय में प्रकाशित मेरी ग़ज़ल:



सृजन पथ अंक तृतीय में प्रकाशित मेरी ग़ज़ल: 



 

 

 

 



हम हैं कहते, जिसे कि, नया  दौर है
बो हमारी सभ्यता के पैर की जंजीर है .

सुन चुकें हैं ,बहुत किस्से ,बीरता ,पुरूषार्थ के
आज भी क्यों खिंच रहा द्रौपदी का चीर है ..

खून की   होली है होती ,आज के इस दौर में
प्यार के जज्बात ओझल ,अश्क है ,ब पीर है ...

लोग प्यासे हो रहें हैं नफरतें दिल में लिए 
प्रश्न  दीखता, हो सरल ,पर बात ये गंभीर है ....

जुल्म की हर दास्ताँ खामोश होकर सह चुके
आज अपनी लेखनी बनती नहीं शमशीर है .....



प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना

Monday, April 15, 2013

गोवा के बीच























अभी जल्दी में मुझे अपने परिबार के साथ गोवा में समय बिताने का अबसर मिला . गोबा के  निर्मल ,स्बच्छ बीच मन को मोह ही नहीं लेते बल्कि हर किसी को पानी में खेलने के लिए मजबूर  कर देते हैं . हिन्दू ,इसाई  आदि लोगों का सदभाव देखते ही बनता है. 

Monday, March 18, 2013

धो डाला

 लो कर लो बात फिर से जीत गए या कहे कि कंगारुओं को धो डाला .चलिए ख़ुशी मना लें थोड़ी और मुँह मीठा कर लें .


























लो कर लो बात फिर से जीत गए या कहे कि कंगारुओं को धो डाला .चलिए ख़ुशी मना लें थोड़ी और मुँह मीठा कर लें .